जब व्यक्ति रिटायर होता है...

वो व्यक्ति
जो रिटायर होता है,
उम्र या जीवन से नहीं,
समाज से घायल होता है।
उस समाज से, जो
हमदर्द का नहीं,
खुदगर्ज़ का कायल होता है…
क्या सोचता है वह व्यक्ति,
जो रिटायर होता है?
शायद,
बचे हुए जीवन का हिसाब,
गुज़रे हुए ज़िंदगी की यादें,
परिवार की जिम्मेदारियाँ,
जो कर न पाया उसका पश्चाताप,
या आगे क्या करना है इसका जवाब।
जी हाँ, यही तो सोचता होगा
वह व्यक्ति, जो नौकरी से रिटायर होता है…
इन सबके बावजूद एक डर,
समाज की उपेक्षाओं का,
अपने खून के बदलते रंगों का,
नकली औपचारिकताओं का,
ढकोसले रिश्तों का और,
ज़िंदगी के सूर्यास्त का।
शायद यही सोचता होगा,
वो शख्स, जो रिटायर होता है…
दूसरा पहलू …आशा
लेकिन,
सच्चाई तो दूर खड़ी है,
ज़िंदगी तो अभी बरसों पड़ी है।
सेवा निवृत्ति छोर नहीं, एक मोड़ है,
जहाँ से ज़िंदगी छूटती नहीं, मुड़ती है।
और आगे चलकर
एक नई कहानी जुड़ती है।
अनुभवों का ख़ज़ाना है,
बंधनों से मुक्ति है।
फिर किन बातों का डर,
और कैसी सुस्ती है?
कौन जानता है ज़िंदगी की डोर
कितनी लंबी है?
कौन कहता है
रिटायरमेंट एक रोग है?
सच तो यह है –
यह ज़िंदगी का घटाव नहीं,
कर्मों का योग है…