ये आवाज़
बहुत दूर तक गयी होती

स्रोत :- यह रचना समर्पित है मेरे उन मित्रों को जिनकी प्रतिभा की बची-खुची चीख सुनकर मुझे यह कहने को मजबूर करती है कि “काश, समय से इन्हें एक सही धरातल मिला होता तो इनकी आवाज बहुत दूर तक गयी होती …
ये आवाज़,
बहुत दूर तक गयी होती
गर उस ओर जाने वाली सड़क,
किसी हादसे में न टूटी होती
रास्ते संकरी,पथरीली,धुंधली ही सही,
मैं जा सकता था उस मुकाम तक
काश, किसी मोड़ पर
मंजिल की एक निशां मिली होती
बेशक़, ये आवाज़
बहुत दूर तक गयी होती …
अक्सर कुदेरता है
मेरे अंदर का दूसरा आदमी,
मेरे अरमानों की हालत पर
जो मोड़ सकती थी जिंदगी को
सितारों की धरातल पर,
हम निरुत्तर है, निहत्थे है,
उसके सवालों के धार पर
हम भाग रहे है वर्षों से
समझौतों की राह पर
काश किसी मोड़ पर
एक ठहराव मिली होती,
बेशक़, ये आवाज
बहुत दूर तक गयी होती …
कुछ मुड़ सा गया साहिल की दिशा,
हवाओं की बहाव में
दिख न सका वो डगर
उलझनों की टकराव में
फासले बड़ते गए
हम बिछड़ते गए,
और खड़े हो गए
बादलों की छावं में,
काश कोई रोशनी
मेरे करीब मिली होती,
बेशक़,ये आवाज
बहुत दूर तक गयी होती …
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