तुम्हारी नाराज़गी
मेरी ज़रूरत है

तुम्हारी नाराज़गी मेरी ज़रूरत है
यह मेरे विषय को जन्म देती है.
कलम को एक गति,
भाव ज़्यादा अर्थपूर्ण होने लगते हैं.
एक ख़ास मंच पर
हम आमने-सामने होते हैं.
गले में अटकी हुई कुछ बातें,
आंखों में छुपी हुई तस्वीरें,
एक झटके से बाहर आ जाती हैं.
मन हल्का हो जाता है.
फिर अच्छा लगता है,
रिश्तों का यह रंग भी खूबसूरत है.
तुम्हारी नाराज़गी मेरी ज़रूरत है…
तुम्हारा रूठना,
मुझे कमज़ोर नहीं करता.
रिश्तों की गांठ कहाँ ढीली हो रही है,
टूटने से पहले चिन्हित हो जाती है.
एक तूफ़ान टकराने से पहले
कमज़ोर पड़ जाता है.
और उसके बाद,
मौसम ख़ुशनुमा हो जाता है…
तुम्हारा ख़फ़ा होना,
एक जोखिम है, कुछ खोने का.
मगर, मौक़ा भी है इसे संजोने का.
मुझे जीतना आता है इसे,
इसका अंदाज़ा तुम्हें भी है.
तभी तो,
तुम अक्सर नाराज़ होती रहती हो.
जो ग़लतियाँ हैं,
उसे सुधारने का मोहलत देती रहती हो.
मैं तुम्हारा आशय जानता हूं.
तुम मेरा पराजय जानती हो.
यह नफ़रत नहीं, एक सूरत है.
तुम्हारी नाराज़गी मेरी ज़रूरत है…
***