लिखना मुश्किल होता है...

कुछ लिखना आसान नहीं,
मुश्किल होता है.
कभी यह उलझाता है,
कभी यह सुलझाता है.
कभी बहकता है,
कभी संभलता है.
तर्कों और भावनाओं का खेल है,
कभी तकरार, कभी मेल है.
इस छोर से उस मोड़ तक जाना होता है,
कुछ लिखना,
आसान नहीं, मुश्किल होता है…
चेहरे की आकृति को
शब्दों में पिरोना,
आंखों की बोली को
ज़ुबां पे लाना,
फूलों का हँसना और
दीवारों का रोना,
कागज़ के टुकड़े पर लाना पड़ता है.
कुछ लिखना,
आसान नहीं, मुश्किल होता है…
कभी नायक,
कभी खलनायक,
कभी योद्धा, कभी कायर,
कभी पागल, कभी शायर —
कई भेष और भूमिकाओं में आना पड़ता है,
ख़ुद को बहुरूपिया बनाना पड़ता है.
हर रंग में रंग जाना
एक मंज़िल होता है.
कुछ लिखना आसान नहीं,
मुश्किल होता है…
लिखना तीर है, तलवार है —
इसे चलाना पड़ता है.
किसी को मारना पड़ता है,
किसी को बचाना पड़ता है.
लिखना एक चिंगारी है —
इसे जलाना पड़ता है.
लिखना एक प्रतिशोध है —
इसे भड़काना पड़ता है.
कभी किसी से बहुत दूर,
कभी बहुत पास आना पड़ता है.
लिखना,
आसान नहीं, मुश्किल होता है..
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