क्या यही जिन्दगी है ?

सुबह यूँ जगना जैसे
जगना ज़रूरी न हो,
वक़्त के साथ यूँ चलना
जैसे वक़्त की कमी न हो.
क्या यही ज़िंदगी है ?
दिन को रात समझना
जैसे सोना ही अपनी मंज़िल हो,
रातों को दिन में बदलना
जैसे जगना ही मज़बूरी हो.
क्या यही ज़िंदगी है ?
नमकहलाली से दूर
नमकहरामी को अपनाना,
हकीकत छोड़
ख़्वाबों में खो जाना.
क्या यही ज़िंदगी है ?
अपनी तारीफ़ों के गीत
ख़ुद ही गुनगुनाना,
औरों के जीवन में
काँटे बिछाना.
क्या यही ज़िंदगी है ?
सच से मुँह मोड़कर
झूठ की चादर ओढ़ लेना,
अंधी भीड़ के पीछे
बेमतलब दौड़ लेना.
क्या यही ज़िंदगी है ?
अपने ही अंतर्मन की
आवाज़ को अनसुना कर देना,
दूसरों की चाहतों में
ख़ुद को गुम कर देना.
क्या यही ज़िंदगी है ?
★★★