कल रात फिर मुझसे पूछेगा

रात,
जो दिन का बुढ़ापा होता है,
रोज़ आता है सोने से पहले,
पूछता है मुझसे कुछ सवाल।
आज,
कितना जागे, कितना सोए,
कितना पाए, कितना खोए,
कितनी बार मरे और कितनी बार जीए?
हर रात हारता हूँ मैं,
उसके इन अजीब सवालों से,
हर बार जीतता है वह मुझसे
अपने तीखे संवादों से……
हम आज,
कितना सही थे, कितना झूठ,
किसी के कितने क़रीब हुए और कितने दूर।
कुछ वो किए जो नहीं करना था,
वह नहीं किए जो करना था।
कभी असली, कभी नकली,
कभी राम, कभी रावण,
कभी देवता, कभी दानव —
एक दिन की ज़िंदगी का
ऐसा ही तो रूपरेखा था।
रात, मेरे एक दिन की ज़िंदगी को
ऐसा ही तो देखा था।
कल सुबह,
फिर एक दिन जन्म लेगा।
एक दिन की ज़िंदगी में फिर,
बचपन, जवानी और बुढ़ापे का क्रम होगा।
आज जैसा था, कल भी वैसा ही होगा।
हम न बदले हैं और न बदलेंगे।
आज जो किया है, कल फिर वही करेंगे।
एक दिन की ज़िंदगी को
फिर से बर्बाद करेंगे…
कल रात
फिर वह मुझसे पूछेगा —
बताओ तो सही,
कब बदलोगे?
कब बाहर और अंदर एक जैसा बनोगे?
कब निस्वार्थ संबंधों को बनाओगे?
कब अंदर की सुंदरता को दिखाओगे?
कब द्विदृष्टि को हटाओगे?
कब सुंदर, बेदाग़ नज़र आओगे?
कब ज़िंदगी को समझ पाओगे?
कल रात,
फिर वह पूछेगा…
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