धोखा देता है ये वक्त...

(स्रोत:-यह अभिव्यक्ति, जनवरी 22, 2005 के साँय उस वक्त मेरे कलम से निकली जब मैंने टी. वी. पर यह समाचार देखा कि एक समय की मशहूर फिल्म अदाकारा परवीन बाबी के रहस्यमय निधन हो गया है और उनकी डेड बाडी लेने वाला कोई नहीं है. )
धोखा देता है ये वक़्त
कभी बहुरूपिया बनकर,
कभी अपना बनकर,
कभी पराया बनकर,
कभी वर्तमान बनकर,
तो कभी भूत बनकर…
बेचारा आदमी
भटक ही जाता है
वक़्त की चालों में,
हालात के जालों में,
कभी रंगीन ख़यालों में,
कभी मदहोशी के प्यालों में…
यह अदृश्य वक़्त
हर जीवन को
अपने घूमते परिधि पर बैठाकर,
उन बिंदुओं को छूता है
जहाँ जीवन का हर अंग है,
वक़्त का हर रंग है
ख़ुशी का सागर और दुखों का पहाड़,
ग़रीबी की खाई और दौलत की बरसात,
अंधेरी रात, कहीं रौशनी की बाड़,
अनोखा बचपन और यौवन का ख़ुमार,
बुढ़ापे की तड़प और अकेलेपन की मार…
और अंत में,
यह बेरहम वक़्त
मौत के जाल में जीवन को छोड़कर,
पानी की तरह बह जाता है,
एक और नए जीवन को
अपने परिधि पर बैठाने के लिए।
बहुरूपिया बन जाता है पुन:
हमें हँसाने और रुलाने के लिए…
★★★