INSIDE ME

हर आदमी के अंदर,
एक और आदमी रहता है ...

यात्रा तो शुरू करो, रास्ते मिल ही जायेंगें -- आर.पी.यादव

तुम्हारा हर एक दिन, एक जीवन के समतुल्य है -- आर.पी.यादव

सूर्यास्त होने तक मत रुको, चीजें तुम्हे त्यागने लगे, उससे पहले तुम्ही उन्हें त्याग दो -- रामधारी सिंह दिनकर

हर परिस्थिति में एक खुबसूरत स्थिति छुपी होती है --आर पी यादव

क्या भाग्य कर्म से ऊपर है ?

यह कविता एक साधारण व्यक्ति के आत्मसंघर्ष को दर्शाती है, जो हर दिन खुद को बदलने की शपथ लेता है, लेकिन बार-बार विफल हो जाता है। जब उसके प्रयत्न और संकल्प निष्फल होने लगते हैं, तब वह अपने इष्ट से यह प्रश्न पूछता है — क्या भाग्य कर्म से ऊपर है? यह कविता आत्मचिंतन, आस्था और प्रयास के बीच की कशमकश को शब्दों में पिरोती है।

क्या भाग्य कर्म से ऊपर है ?

क्या भाग्य कर्म से ऊपर है

 

एक व्यक्ति,
सुबह सवेरे
एक नियत समय पर,
अपने अभीष्ट देव के सामने
अगरबत्ती सुलगाता है।
हाथ जोड़कर नतमस्तक होता है,
शपथ लेता है,
आज से
ज़िंदगी के हर दिन,
हर पल का सदुपयोग करूंगा।
जो अनर्थ कल तक करता आया हूं,
आज से उसे छोड़ दूंगा।
आज वह
एक नया सबक सीखता है।
कल का दिन
आज के आईने में
उसे बदसूरत सा दिखता है…

वह व्यक्ति दूसरे दिन,
उसी वक्त, उसी अभीष्ट देव के सामने,
पुनः अगरबत्ती सुलगाता है,
आरती उतारता है,
हाथ जोड़ता है,
नतमस्तक होता है,
वही शपथ लेता है जो कल ली थी,
किन्तु आज,
वह लज्जित और शर्मिंदा है,
क्योंकि
आज के आईने में भी,
गुज़रे कल का ही प्रतिबिंब देखता है…

पुनः
तीसरे, चौथे और प्रतिदिन,
बार-बार वही क्रिया अपनाता है,
अपने अभीष्ट देव के पास जाता है,
अर्चना करता है, शपथ लेता है,
बदल जाने की कसम खाता है,
किन्तु हर रोज
गुज़रे कल का ही प्रतिबिंब देखता है…
अब कारण पूछता है
हर दिन से हारने का,
हर रोज
उसी बदसूरत प्रतिबिंब के उभरने का,
बार-बार
असफल होने का।
अब वह,
अपने वादों से निरुत्तर है,
पूजा, अर्चना से निराश,
आस्था से आशंकित है,
पूछता है अपने इष्टदेव से —
क्या भाग्य कर्म से ऊपर है?

            ★★★

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