कल, आज और कल ...

(स्रोत:- कई बार व्यक्ति के साथ गुजरा हुआ सुनहरा वक्त, वर्तमान परिदृश्य में संदेहित हो जाता है . यकीन नही होता कि वास्तव में वह सच था या झूठ. “कल आज और कल ” इसी को चित्रित कराती रचना है. )
कल, आज के आईने में
एक ख़्वाब नज़र आता है.
‘आज’ भी कल के आईने में
ऐसा ही नज़र आएगा,
हकीकत तो सिर्फ
क्षणिक ‘वर्तमान’ है
जो धुंधला नज़र आता है…
कभी-कभी
‘कल’ का अस्तित्व भी
आज के परिदृश्य में
संदेहित हो जाता है.
‘कल’ था या कुछ और था
यह प्रश्न अक्सर उभर आता है,
कल का जीवन
आज, आशंकित हो जाता है…
ख़ूब मालूम है मुझे
कल ‘आज’ भी
‘कल’ बन जाएगा,
आज का ख़ूबसूरत लम्हा
कल एक याद में ढल जाएगा,
और, जब प्रमाणित करोगे
आज की परिधि को
तर्कों की तराज़ू,
असंतुलित हो जाएगा…
आख़िरकार,
‘कल’, ‘आज’ और ‘कल’
जीवन चक्र के तीन बिंदु ही तो हैं,
अंत में पहेली का,
यही सार नज़र आएगा…
★★★